मेरी वफ़ा मुक़ीम है गर्द-ओ-ग़ुबार में आहिस्ता चलना बाद-ए-सबा कू-ए-यार में हम हैं फ़रेब-ख़ुर्दा मगर बे-ख़बर नहीं मफ़हूम-ए-ज़िंदगी है फ़क़त ए'तिबार में रोटी तो रिश्ता बन न सकी कोई देस हो ऐसी मोहब्बतें तो हैं अपने दयार में हर शख़्स मुज़्तरिब है हर-इक शख़्स बे-क़रार हासिल सुकूँ तवक्कुल-ए-परवरदिगार में सच कह के क्या गुनाह किया सोचते हैं अब रिश्ते तमाम क़त्अ हुए एक बार में