मिल भी जाता जो आब आब-ए-बक़ा क्या करते ज़िंदगी ख़ुद भी थी जीने की सज़ा क्या करते सरहदें वो न सही अपनी हदों से बाहर जो भी मुमकिन था क्या उस के सिवा क्या करते हम सराबों में सदा फूल खिलाते गुज़रे ये भी था आबला-पाई का सला किया करते जिस को मौहूम लकीरों का मुरक़्क़ा' कहिए लौह-ए-दिल पर था यही नक़्श-ए-वफ़ा क्या करते अब वो शालों का क़फ़स हो कि लहू की ख़ुश्बू दिल पे लहराती रही बर्क़-ए-अदा क्या करते माँगने को तो यहाँ अपने सिवा कुछ भी न था लब पे आता भी अगर हर्फ़-ए-दुआ क्या करते हम को ख़ुद अर्ज़-ए-तमन्ना का सलीक़ा भी न था वो भी 'तनवीर' भला उज़्र-ए-जफ़ा क्या करते