मिल गए पर हिजाब बाक़ी है फ़िक्र-ए-नाज़-ओ-इताब बाक़ी है बात सब ठीक-ठाक है प अभी कुछ सवाल-ओ-जवाब बाक़ी है गरचे माजून खा चुके लेकिन दौर-ए-जाम-ए-शराब बाक़ी है झूटे वादे से उन के याँ अब तक शिकवा-ए-बे-हिसाब बाक़ी है गाह कहते हैं शाम हूई अभी ज़र्रा-ए-आफ़्ताब बाक़ी है फिर कभी ये कि अब्र में कुछ-कुछ परतव-ए-माहताब बाक़ी है है कभी ये कि तुझ पे छिड़केंगे जो लगन में शहाब बाक़ी है और भड़के है इश्तियाक़ की आग अब किसे सब्र-ओ-ताब बाक़ी है उड़ गई नींद आँख से किस की लज़्ज़त-ए-ख़ुर्द-ओ-ख़्वाब बाक़ी है है ख़ुशी सब तरह की, नाहक़ का ख़तरा-ए-इंक़लाब बाक़ी है है वो दिल की धड़क सो जूँ की तूँ जी पर उस का अज़ाब बाक़ी है जो भरा शीशा था हुआ ख़ाली पर वो बू-ए-गुलाब बाक़ी है अपनी उम्मीद थी सो बर आई यास शक्ल-ए-सराब बाक़ी है है यही डोल जब तक आँखों में दम बसान-ए-हबाब बाक़ी है मिस्ल-ए-फ़र्मूदा-ए-हुज़ूर 'इंशा' फिर वही इज़्तिराब बाक़ी है