तेरे वादे का इख़्तिताम नहीं कि क़यामत पे भी क़याम नहीं बेवफ़ाई तुम्हारी आम हुई अब किसी को किसी से काम नहीं किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई ग़ैर यूसुफ़ नहीं ग़ुलाम नहीं वस्ल के बअ'द हिज्र का क्या काम दूर गर्दूं का इंतिज़ाम नहीं कौन सुनता है नाला-ओ-फ़रियाद चर्ख़ को ख़ौफ़-ए-इंतिक़ाम नहीं ख़ाल-ए-लब देख कर हुआ मालूम कोई दाना बग़ैर-ए-दाम नहीं आप में क्यूँ कि आऊँ जब कि तू आए ख़ल्वत-ए-ख़ास बज़्म-ए-आम नहीं नाला करता हूँ लोग सुनते हैं आप से मेरा कुछ कलाम नहीं जिस जगह है वहाँ भी है बोहतान कि किसी जा तिरा मक़ाम नहीं रोज़-ए-फ़ुर्क़त को रोज़-ए-हश्र न जान शाम पर भी तो इख़्तिताम नहीं है ख़ुदा ही 'क़लक़' जो आज बुझे सुब्ह होते नहीं कि शाम नहीं