मिल गया जब वो नगीं फिर ख़ूबी-ए-तक़दीर से दिल को क्या क्या वहशतें हैं संग की तासीर से जलता बुझता एक जुगनू की तरह तेरा ख़याल बस यही निस्बत है अपनी रात को तनवीर से फिर हवा के हाथ पर बैअत को दिल बेताब है आँख फिर रौशन हुई है गर्द की तहरीर से शब न जाने आँख पर क्या राज़ इफ़्शा कर गई ख़्वाब चकनाचूर हो कर रह गए ताबीर से ख़ुद-फ़रेबी है कि इस को आगही का नाम दूँ अपनी क़ामत नापता है आज वो शमशीर से इस शिकस्ता घर का गिरना यूँ लगा मुझ को 'निज़ाम' टूट जाए इक कड़ी जैसे किसी ज़ंजीर से