मिला जो ख़ार तो दिल में बिठा लिया मैं ने हर एक फूल से दामन बचा लिया मैं ने नज़र में उन का सरापा बसा लिया मैं ने ग़म-ए-फ़िराक़ को आसाँ बना लिया मैं ने न पूछ मुझ से मिरे फ़र्त-ए-शौक़ का आलम हर एक ग़म को तिरा ग़म बना लिया मैं ने भड़क के बुझ गया जब उस का हर एक दिया चराग़-ए-दिल को शब-ए-ग़म जला लिया मैं ने ये क्या ख़बर थी दहकते हुए हैं अंगारे समझ के फूल जिन्हें सर चढ़ा लिया मैं ने फ़रेब-कार रफ़ीक़ों की अब नहीं हाजत कि अपने सीने से ग़म को लगा लिया मैं ने समझ लिया जिसे औरों ने 'अश्क' ना-मुम्किन उसी को अपनी तमन्ना बना लिया मैं ने