मिला मुझ से वो इतनी बे-रुख़ी से कि जैसे अजनबी इक अजनबी से मज़म्मत सिर्फ़ वो करते हैं उस की नहीं वाक़िफ़ जो रम्ज़-ए-आशिक़ी से सर-ए-फ़िहरिस्त हैं अहल-ए-ख़िरद की जिन्हें निस्बत नहीं कुछ आगही से जो था तक़दीर में वो पेश आया शिकायत क्या करूँ अब मैं किसी से सुनाना चाहता हूँ दिल की बातें मगर डरता हूँ उन की बरहमी से ग़ुबार-ए-राह से कह दो कि छट जाए नहीं वाक़िफ़ ये क़ैस-ए-आमिरी से यहाँ जब सैर को भी हो सिवाया तो फिर कम ख़ुद को क्यों समझूँ किसी से समझता है वही रोज़ी-रसाँ है तवक़्क़ो और क्या हो आदमी से मुसीबत में नहीं कोई किसी का मिला 'ख़ावर' सबक़ ये दोस्ती से