मिला तो दे के जुदाई चला गया आख़िर हमारे हिस्से में तन्हा सफ़र रहा आख़िर अगर ये तय था कि हर बात से मुकरना है तो साथ देने का वा'दा ही क्यों किया आख़िर उसे ख़याल था कितना जहान वालों का इसी ख़याल में जाँ से गुज़र गया आख़िर तज़ाद-ए-फ़िक्र का इल्ज़ाम कुछ दुरुस्त नहीं कहा था मैं ने जो अव्वल वही कहा आख़िर वो मेरे दर्द मिरे ग़म को बाँटने वाला इक और कर्ब मुझे दान कर गया आख़िर तुम्हें यक़ीन था हम दोस्ती निभा लेंगे हमें गुमान था जिस का वही हुआ आख़िर फ़राज़-ए-दार से पहले का वक़्त मुश्किल था किसी की याद के साए में कट गया आख़िर जब इख़्तियार था तुम फ़ैसला सुना देते तमाम उम्र तज़ब्ज़ुब में क्यों रक्खा आख़िर मैं उस के हाथ से निकला हुआ ज़माना था वो मेरी खोज में निकला बिखर गया आख़िर मैं ए'तिबार की दुनिया से कट गया 'अनवर' किसी के साथ मैं इतना भी क्यों चला आख़िर