मिली है राह-ए-मोहब्बत में ए'तिबार की छाँव सुलगते सहरा में है साथ तेरे प्यार की छाँव वो तेरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर का घना साया ख़िज़ाँ में आने लगी याद वो बहार की छाँव तिरी वफ़ा ने वफ़ा की नहीं इसी ग़म में तिरे ख़ुतूत को देनी पड़ी ग़ुबार की छाँव जो तेरी ज़ात की हम्द-ओ-सना से है मंसूब मुझे नसीब हो मौला उसी दयार की छाँव सितमगरों पे चली और बन गई मुख़्लिस सितम-रसीदा पे शमशीर-ए-आब-दार की छाँव ये ऐसा पेड़ है जो आग ही उगलता है हमें नसीब कहाँ हिज़्ब-ए-इक़्तिदार की छाँव हूँ सूखा पेड़ तिरी रहगुज़र का ऐ 'महशर' सो दे रहा हूँ तुझे मेरे इख़्तियार की छाँव