मिल-जुल के बरहना जिसे दुनिया ने किया है उस दर्द ने अब मेरा बदन ओढ़ लिया है मैं रेत के दरिया पे खड़ा सोच रहा हूँ इस शहर में पानी तो यज़ीदों ने पिया है ऐ गोर-कनों क़ब्र का दे कर मुझे धोका तुम ने तो ख़लाओं में मुझे गाड़ दिया है मैं साहब-ए-इज़्ज़त हूँ मिरी लाश न खोलो दस्तार के पुर्ज़ों से कफ़न मैं ने सिया है फैला है तिरा कर्ब 'क़तील' आधी सदी पर हैरत है कि तू इतने बरस कैसे जिया है