मिलना हमारा कम हुआ फिर बात कम हुई क़िस्तों में मुझ ग़रीब की ख़ैरात कम हुई यूँही न हम उदास हुए एक रोज़ में आमद तुम्हारे ख़्वाब की हर रात कम हुई जिस दिन से ख़ुद को भीड़ का हिस्सा बना लिया उस दिन से मेरी ख़ुद से मुलाक़ात कम हुई इक आरज़ू की बेल लगाई थी इस बरस और इस बरस ही जाने क्यों बरसात कम हुई हर-वक़्त चाँद तारे तो रहते हैं साथ पर रातों के मन की तीरगी किस रात कम हुई