मिलता है मौज मौज मुझे तू कभी कभी

मिलता है मौज मौज मुझे तू कभी कभी
उभरा है तेरा अक्स लब-ए-जू कभी कभी

पाते हैं कुछ गुलाब ठिकानों में परवरिश
आती है पत्थरों से भी ख़ुश्बू कभी कभी

ये भी हुआ कि आँख भी पथरा गई मिरी
पलकों पे जम गए मिरे आँसू कभी कभी

रख सुब्ह-ओ-शाम शाना-ए-तदबीर हाथ में
हालात के बिखरते हैं गेसू कभी कभी

ये भी है इक सितम तिरी क़ुर्बत के बावजूद
मिलता नहीं सुकूँ किसी पहलू कभी कभी

भटकी मिरी निगाह भी तेरी तलाश में
आँसू बने हैं आँख में आहू कभी कभी

मैं संग-ए-दिल नहीं हूँ मगर इस के बावजूद
चलता है मुझ पे हुस्न का जादू कभी कभी

शबनम ब-दोश आ के मुझे हौसला भी दे
बाद-ए-सबा की तरह मुझे छू कभी कभी

'नासिर' मिरी ग़ज़ल को बहारों का बाँकपन
देती है उस की जुम्बिश-ए-अबरू कभी कभी


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