मिलते हैं शहर-ए-यार में मंज़र गुलाब के सब साएबाँ गुलाब के सब दर गुलाब के जब आफ़्ताब ख़ूँ में नहाया ज़वाल पर बादल लहू-लहू थे कि लश्कर गुलाब के साया किसी का सेहन-ए-चमन पर बिखर गया और बन रहे हैं बाग़ में पैकर गुलाब के कोई तो रंग-ए-आतिश-ए-लब को बदल गया पहले थे उन के होंट बराबर गुलाब के याक़ूत था शरर थे लहू था कि आब-ए-सुर्ख़ आँखें थीं उन की या कि थे साग़र गुलाब के भंवरो से पूछे कोई भला रस को छोड़ कर क्या ढूँडते हैं जाने वो अंदर गुलाब के बुलबुल से कोई कह दे चमन में कि इन दिनों 'अमृत' भी हो गए हैं सुख़नवर गुलाब के