मिलते नहीं हैं जब हमें ग़म-ख़्वार एक दो फिरते हैं हाथ में लिए अख़बार एक दो शोरीदगी-ए-सर को मैं रोऊँगी ता-ब-कै ला कर मुझे भी दे कोई दीवार एक दो आँखों में ला के देख तबस्सुम की रौशनी जीते हैं तेरी चश्म के बीमार एक दो समझो है ख़ुश-नसीब वो सारे जहान में लाए जो ढूँड कर कोई ग़म-ख़्वार एक दो फिरते हैं मीर ख़ार कोई पूछता नहीं ग़ालिब भी बिकते हैं सर-ए-बाज़ार एक दो मानूस ग़म से ख़ुद को 'सदफ़' कर के जी ज़रा हर हर क़दम पे हैं पए आज़ार एक दो