मिरा दिल संग-दिल ने दिल का अरमाँ बन के लूटा है ग़ज़ब है ख़ाना-ए-उल्फ़त को मेहमाँ बन के लूटा है किया अंधेर ज़ालिम ने बुझा कर शम-ए-उल्फ़त को उमीदों की सहर को शाम-ए-हिज्राँ बन के लूटा है झलक दिखला के जिस ने नींद आँखों की उड़ाई थी उसी ने नक़्द-ए-दिल ख़्वाब-ए-परेशाँ बन के लूटा है ज़बान-ए-इश्क़ में जिस को कहेंगे दुश्मन-ए-ईमाँ उसी पैमाँ-शिकन ने रूह-ए-ईमाँ बन के लूटा है ज़बान-ए-शौक़ पर रख रख के इल्ज़ाम-ए-सुख़न-साज़ी बुत-ए-ख़ामोश ने मुझ को ज़बान-दाँ बन के लूटा है मैं जिस को मंज़िल-ए-मक़्सूद का रहबर समझता था उसी बे-दर्द ने मुझ को निगहबाँ बन के लौटा है किया मुझ को शिकार-ए-कुफ़्र ले कर आड़ ईमाँ की किसी काफ़िर ने ऐ 'नाज़िश' मुसलमाँ बन के लूटा है