मिरा हर तीर निशाने पे न पहुँचा आख़िर दर-सफ़र में भी ठिकाने पे न पहुँचा आख़िर तोतली उम्र में जो बच्चा ज़रा मुशफ़िक़ था कुछ बड़ा हो के दहाने पे न पहुँचा आख़िर जी को समझाता हूँ क़िस्मत में लिखा था सो हुआ कुछ सँभल कर भी बहाने पे न पहुँचा आख़िर एक ग़म होता तो सीने से लगा लेता कोई ग़म का अम्बार उठाने पे न पहुँचा आख़िर फल कतरने के लिए डार उतर आती थी बे-समर कोई बुलाने पे न पहुँचा आख़िर शहर कुछ छूट गए गर्द-ए-सफ़र लिपटी रही कोई रूदाद सुनाने पे न पहुँचा आख़िर