मिरा ख़त है जहाँ यारो वो रश्क-ए-हूर ले जाना किसी सूरत से वाँ तक तुम मिरा मज़कूर ले जाना अगर वो शो'ला-रू पूछे मिरे दिल के फफूलों को तो उस के सामने इक ख़ोशा-ए-अंगूर ले जाना जो ये पूछे कि अब कितनी है उस के रंग पर ज़र्दी तो यारो तुम गुल-ए-सद-बर्ग या काफ़ूर ले जाना अगर पूछे मिरे सीने के ज़ख़्मों को तो ऐ यारो कहीं से ढूँढ कर इक ख़ाना-ए-ज़ंबूर ले जाना रक़ीब-ए-रू-सियह के हाल का गर माजरा पूछे तो उस के सामने जंगल से इक लंगूर ले जाना 'नज़ीर' इक दिन ख़ुशी से यार ने हँस कर कहा मुझ को कि तू भी एक बोसा हम से ऐ रंजूर ले जाना