मिरा तफ़क्कुर ग़ुबार-सोचें निखारता है कि मेरी आँखों में सुर्ख़ शबनम उतारता है मैं आज ख़ौफ़-ए-ख़ुदा से महरूम हो गया हूँ कई ख़ुदाओं का ख़ौफ़ अब मुझ को मारता है डरा रहा है मुझे वो मेरे पड़ोसियों से मिरे जिगर में जो ज़हर-ए-ख़ंजर उतारता है मिरे मोहल्ले में मेरे भाई झगड़ रहे हैं उधर कोई अपने तरकाशों को सँवारता है हिसार-ए-ज़ुल्मत में कब से इंसाँ भटक रहा है किसी नए दिन को दौर-ए-हाज़िर पुकारता है दम-ए-सराफ़ील है नक़ीब-ए-जहान-ए-नौ है वो एक जज़्बा कि सर दिलों में उभारता है नवेद है इक जहान-ए-नौ की इसी के दम से हमारी रूहों में इर्तिक़ा पर सँवारता है