मिरा वजूद शुमार-ए-नफ़स में आया नहीं तमाम-उम्र मैं साँसों के बस में आया नहीं नुक़ूश-ए-लम्स-ए-हक़ीक़त मिटाने वाला था मगर वो ख़्वाब मिरी दस्तरस में आया नहीं सवाल ये है कि दश्त-ए-बदन का क्या होगा अगर जुनूँ का परिंदा क़फ़स में आया नहीं अजब नहीं कि ये बाहें कुचल के रख देतीं भला हुआ वो हिसार-ए-हवस में आया नहीं ये कौन है जो हमें तूल देता रहता है ये कौन है जो ज़द-ए-पेश-ओ-पस में आया नहीं