मिरे चारों तरफ़ एक आहनी दीवार क्यूँ है अगर सच्चा हूँ मैं सच का मुक़द्दर हार क्यूँ है निशात-ओ-इम्बिसात-ओ-शादमानी ज़ीस्त ठहरी तो बतलाए कोई जीना मुझे आज़ार क्यूँ है मसाफ़त ज़िंदगी है और दुनिया इक सराए तो इस तमसील में तूफ़ान का किरदार क्यूँ है जहाँ सच की पज़ीराई के दा'वेदार हैं सब उसी बज़्म-ए-सुख़न में बोलना दुश्वार क्यूँ है यक़ीनन हादसे भी जुज़्व-व-ख़ास-ए-ज़िंदगी हैं हमारा शहर ही इन से मगर दो-चार क्यूँ है मिरी राहों में जब होते नहीं काँटे 'तसव्वुर' मैं डर कर सोचता हूँ रास्ता हमवार क्यूँ है