मिरे जज़्बात-ए-रंगीं की फ़रावानी नहीं जाती कि आँखों से तिरे जल्वे की ताबानी नहीं जाती फ़रोग़-ए-हुस्न है या मेरी नज़रों की ये ख़ामी है ब-हर-सूरत तिरी तस्वीर पहचानी नहीं जाती मोहब्बत आप की दिल से भुला दूँ किस तरह क्यूँ कर ब-मुश्किल शय जो आई हो ब-आसानी नहीं जाती कहाँ तू खींच लाया ऐ मज़ाक़-ए-आशिक़ी मुझ को जहाँ मुझ से मिरी तस्वीर पहचानी नहीं जाती मुझे तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पर न कर मजबूर ऐ नासेह ख़िलाफ़-ए-अक़्ल कोई बात हो मानी नहीं जाती तुम्हारे जौर-ए-बेहद ने ये बख़्शा है शरफ़ मुझ को शिकस्त-ए-दिल की भी आवाज़ पहचानी नहीं जाती कोई 'साबिर' से दीवाने को समझाए भला क्यूँ कर परस्तार-ए-जुनूँ की चाक-दामानी नहीं जाती