सुकून-ए-दिल गया नज़रों से सब क़तारे गए चमन में खिलते हुए जब से फूल मारे गए हवा-ए-मौत ज़रा देर क्या इधर आई कि मेरे हाथ से उड़ कर मिरे ग़ुबारे गए ये कैसी कर्बला बरपा हुई पेशावर में लहू में डूबे हुए मेरे बच्चे मारे गए उन्हें ही मर्तबा मिलता है जा के जन्नत में हुसूल-ए-इल्म की ख़ातिर जो जान वारे गए चमन उजाड़ने वालो तुम्हें ख़ुदा समझे तुम्हें न आई हया फूल तो हमारे गए रहेगा याद हमें आने वाली नस्लों तक वो नक़्श-ए-पा जो यहाँ ख़ून से उभारे गए सलाम मेरा 'अज़ीम' उन शहीद बच्चों को जो अपनी जीत की ख़ातिर भी जान हारे गए