मिरे लिए तिरी नज़रों की रौशनी है बहुत कि देख लूँ तुझे पल भर मुझे यही है बहुत ये और बात कि चाहत के ज़ख़्म गहरे हैं तुझे भुलाने की कोशिश तो वर्ना की है बहुत कुछ इस ख़ता की सज़ा भी तो कम नहीं मिलती ग़रीब-ए-शहर को इक जुर्म-ए-आगही है बहुत कहाँ से लाऊँ वो चेहरा वो गुफ़्तुगू वो अदा हज़ार हुस्न है गलियों में आदमी है बहुत कभी तो मोहलत-ए-नज़्ज़ारा निकहत-ए-गुज़राँ लबों पे आग सुलगती है तिश्नगी है बहुत किसी ने हँस के जो देखा तो हो गए उस के कि इस ज़माने में इतनी सी बात भी है बहुत