मिरे मिटने पे गर तू भी मिटा होता तो क्या होता तुझे भी सब्र ऐ दिल आ गया होता तो क्या होता चले आते हैं लाखों सरफ़रोशी की तमन्ना में तिरा कूचा अगर दारुश्शिफ़ा होता तो क्या होता अदम से मैं न आता इस जहाँ में ग़म उठाने को अगर हस्ती मुझे तेरा पता होता तो क्या होता तुझी पे मुंसिफ़ी है ले तू ही इंसाफ़ से कह दे अगर तेरी तरह मैं बेवफ़ा होता तो क्या होता सितारे क्यूँ दिखाती मुझ को दिन भर मेरी नाकामी वो शब को मल के अफ़्शाँ आ गया होता तो क्या होता सर-ए-शोरीदा को मैं पत्थरों से फोड़ता फिरता बुत-ए-काफ़िर जो तू मेरा ख़ुदा होता तो क्या होता सबात उस को नहीं फिर भी फ़िदा है हज़रत-ए-इंसाँ जो ये दार-ए-फ़ना दार-ए-बक़ा होता तो क्या होता किसी के पास रह कर भी तड़पते हिज्र में 'नादिर' हमें जन्नत में भी कुछ आसरा होता तो क्या होता