मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा मिरा सफ़र ही मिरे फ़ासले बढ़ा देगा अँधेरी रात है इस तुंद-ख़ू से मत कहना वो रौशनी के लिए अपना घर जला देगा मैं उस का सब से हूँ प्यारा मगर बिछड़ते ही वो सब को याद करेगा मुझे भुला देगा बना हुआ हूँ मैं मुजरिम बग़ैर जुर्म किए अब और क्या मिरा मुंसिफ़ मुझे सज़ा देगा उगाया जिस ने है बंजर ज़मीं में तुझ को 'नसीम' है क्या बईद कि वो फूल भी खिला देगा