मिरे पाँव के नीचे भी ज़मीं है मुझे हिजरत का कोई दुख नहीं है कभी ना-आश्ना तुझे सारे रस्ते मगर हर रास्ता अब दिल-नशीं है कभी सारे ही मौसम अजनबी थे मगर अब दिल में हर मौसम मकीं है कभी मेरा बदन ही था यहाँ पर मगर अब दिल की दुनिया भी यहीं है कभी हर शाम बे-मंज़र यहाँ थी मगर हर शाम अब बेहद हसीं है तो क्या मैं नक़्श-ए-माज़ी भूल बैठा नहीं ऐसा नहीं ऐसा नहीं है हवाएँ दोस्त बन जाएँ जहाँ पर वही 'अश्फ़ाक़' दिल की सर-ज़मीं है