मिरे सीने से रंज-ओ-ग़म की तुग़्यानी नहीं जाती इलाही क्या करूँ दिल की परेशानी नहीं जाती मुझे ग़ैरों के झूटे दावा-ए-उल्फ़त से क्या मतलब ग़ज़ब ये है मिरी हक़ बात भी मानी नहीं जाती किया उस चश्म-ए-इश्क़-अफ़रोज़ ने बर्बाद दुनिया में मगर फिर भी नज़र की फ़ित्ना-सामानी नहीं जाती तहय्युर है मोहब्बत के नताएज तू ने देखे हैं मगर अफ़्सोस ऐ दिल तेरी नादानी नहीं जाती पड़े हैं पेच सुम्बुल में यहाँ आईना हैराँ है तअ'ज्जुब है कि गेसू की परेशानी नहीं जाती जहाँ में हर तरफ़ सामान-ए-इशरत भी मुहय्या है सबब क्या है मिरी ग़म की फ़रावानी नहीं जाती दिलाया याद उस पैमाँ-शिकन को व'अदा क्यूँ मैं ने परेशाँ हूँ किसी सूरत पशेमानी नहीं जाती हज़ारों नामवर आ कर बसे शहर-ए-ख़मोशाँ में मगर इस सर-ज़मीं की फिर भी वीरानी नहीं जाती पए दरयाफ़्त असरार-ए-हक़ीक़त सब हैं सरगर्दां फ़लक के पार लेकिन अक़्ल-ए-इंसानी नहीं जाती नतीजा नेक है ईसार का दुनिया-ओ-उक़्बा में हक़ीक़त में कभी बे-कार क़ुर्बानी नहीं जाती असर क्या ख़ाक हो मेरी फ़ुग़ाँ का उस पे ऐ 'हाफ़िज़' मिरी आवाज़ तक उस घर में पहचानी नहीं जाती