मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला

मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला
दहान-ए-ज़ख़्म से ख़ूँ हो के हर्फ़-ए-आरज़ू निकला

मिरा घर तेरी मंज़िल-गाह हो ऐसे कहाँ तालए
ख़ुदा जाने किधर का चाँद आज ऐ माह-रू निकला

फिरा गर आसमाँ तो शौक़ में तेरे है सरगर्दां
अगर ख़ुर्शीद निकला तेरा गर्म-ए-जुस्तुजू निकला

मय-ए-इशरत तलब करते थे नाहक़ आसमाँ से हम
वो था लबरेज़-ए-ग़म इस ख़ुम-कदे से जो सुबू निकला

तिरे आते ही आते काम आख़िर हो गया मेरा
रही हसरत कि दम मेरा न तेरे रू-ब-रू निकला

कहीं तुझ को न पाया गरचे हम ने इक जहाँ ढूँडा
फिर आख़िर दिल ही में देखा बग़ल ही में से तू निकला

ख़जिल अपने गुनाहों से हूँ मैं याँ तक कि जब रोया
तो जो आँसू मिरी आँखों से निकला सुर्ख़-रू निकला

घिसे सब नाख़ुन-ए-तदबीर और टूटी सर-ए-सोज़ान
मगर था दिल में जो काँटा न हरगिज़ वो कभू निकला

उसे अय्यार पाया यार समझे 'ज़ौक़' हम जिस को
जिसे याँ दोस्त अपना हम ने जाना वो उदू निकला


Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close