मिरे वहम-ओ-गुमाँ पे रात दिन छाई उदासी है पहन कर ख़्वाहिशों का ये बदन आई उदासी है परिंदा जिस्म के पिंजरे में आया तो बहुत ख़ुश था मगर उस ने सहर से शाम तक पाई उदासी है कोई बतलाए कि अब किस तरह पाऊँ सुकून-ए-दिल मेरे इस जिस्म के पिंजरे में दर आई उदासी है चमन बे-रंग अफ़्सुर्दा कली हर फूल बे-ख़ुश्बू बहारों की फ़ज़ा भी इस बरस लाई उदासी है नज़र आया नहीं मुझ को मिरा गुल-रंग चेहरा जब कहा आईने ने हज़रत ये तन्हाई उदासी है हर इक सू शहर-ए-दिल-आराम में जश्न-ए-बहाराँ था फ़ज़ा मेरे ही घर आँगन की कहलाई उदासी है घटा छाते ही जैसे धूप छट जाती है आँगन की तुझे आते ज़रा देखा तो शर्माई उदासी है