मिरी हर साँस को सब नग़्मा-ए-महफ़िल समझते हैं मगर अहल-ए-दिल आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल समझते हैं गुमाँ काशान-ए-रंगीं का है जिस पर निगाहों को उसे अहल-ए-नज़र गर्द-ए-रह-ए-मंज़िल समझते हैं इलाही कश्ती-ए-दिल बह रही है किस समुंदर में निकल आती हैं मौजें हम जिसे साहिल समझते हैं तरब-अंगेज़ हैं रंगीनियाँ फ़स्ल-ए-बहारी की मगर बुलबुल उन्हें ख़ून-ए-रग-ए-बिस्मिल समझते हैं पिघल कर दिल लहू हो हो के बह जाता है आँखों से सितम है शम्अ को जो ज़ीनत-ए-महफ़िल समझते हैं कहाँ होगा ठिकाना बर्क़-रफ़्तारी उन की वहशत का कि वो मंज़िल को भी संग-ए-रह-ए-मंज़िल समझते हैं बगूले उड़ रहे हैं जो हमारे दश्त-ए-वहशत में उन्हीं को ऐ 'असर' हम पर्दा-ए-महमिल समझते हैं