वो उन का हिजाब और नज़ाकत के नज़ारे आए वो शब-ए-वादा तसव्वुर के सहारे वो काली घटा और वो बढ़ते हुए धारे ज़ाहिद भी अगर देखे तो साक़ी को पुकारे वो जल्वा-गाह-ए-नाज़ वो मख़मूर निगाहें अब क्या कहूँ ये लम्हे कहाँ मैं ने गुज़ारे ख़ुद हुस्न का मेआर निरा ज़ौक़-ए-नज़र हैं उतने ही हसीं आप हैं जितने मुझे प्यारे बे-वज्ह नहीं हुस्न की तनवीर में ताबिश वो देते हैं ख़ाकिस्तर-ए-उल्फ़त के शरारे तुम चाहो तो दो लफ़्ज़ों में तय होते हैं झगड़े कुछ शिकवे हैं बेजा मिरे कुछ उज़्र तुम्हारे फिर जाम-ब-कफ़ हो गई हर चीज़ 'असर' आज याद आ गए फिर मध्-भरी आँखों के इशारे