मिरी कार-गाह-ए-दिल में अभी काम है ज़्यादा कोई चीज़ इक जगह से ज़रा ख़ाम है ज़्यादा किसी मंज़र-ए-शफ़क़ को कहाँ आँख में जगह दूँ मिरे ख़ून-ए-दिल से रंगीं मिरी शाम है ज़्यादा घड़ी-भर ठहरने वाले ज़रा ये ख़याल रखना ये जो साया-ए-शजर है कोई दाम है ज़्यादा मिरा मशवरा यही है इसी रास्ते से जाना बड़ा साफ़ है अगरचे कई गाम है ज़्यादा पड़े हैं बहुत से मेरे अभी काम ना-मुकम्मल कोई बोझ जाते दिन पर सर-ए-शाम है ज़्यादा कोई जुर्म दूसरे का मिरा बन गया है कैसे तिरी फ़र्द-ए-जुर्म में क्यूँ मिरा नाम है ज़्यादा कभी कूचा-ए-तलब में कभी राह-ए-ज़र-गरी पर तिरा कार-ए-हुस्न अब कुछ सर-ए-आम है ज़्यादा तिरी आँख में जो 'शाहीं' लबालब भरा हुआ है किसी इक तरफ़ से ख़ाली वहीं जाम है ज़्यादा