मिरी ख़ातिर कोई नामा कोई पैग़ाम तो हो दिल-ए-मुज़्तर को किसी तौर से आराम तो हो मुझ से आवारा को मिल जाए मगर जा-ए-अमाँ आरज़ू है तिरे कूचे में कभी शाम तो हो मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र जाए तो कुछ बात बने आज ज़िंदाँ में भी तज़ईन-ए-दर-ओ-बाम तो हो तपते सहरा में भी साया कहीं मिल जाएगा पहले ऐ दोस्त तुझे जुरअत-ए-यक-गाम तो हो बे-गुनाही का मिरे क़त्ल पे चर्चा होगा कोई बोहतान तराशो कोई इल्ज़ाम तो हो गर तिरा लुत्फ़ नहीं तेरा तग़ाफ़ुल ही सही आख़िरश मेरी वफ़ा का कोई इनआ'म तो हो उँगलियाँ उठती हैं जिस सम्त भी जाते हो 'हबाब' न सही कुछ मगर इक शाइ'र-ए-बदनाम तो हो