एक तो दुनिया का कारोबार है इश्क़ का उस पर अलग आज़ार है कौन इस जा साहब-ए-किरदार है हर कोई बस ग़ाज़ी-ए-गुफ़्तार है सुबह तक उठती रही आह-ओ-फ़ुग़ाँ कौन मुझ में शाम से बेदार है अहल-ए-दिल आए यहाँ ताख़ीर से अब कहाँ वो गर्मी-ए-बाज़ार है शोर में डूबा हुआ है घर तमाम और सन्नाटा पस-ए-दीवार है मैं हुआ बे-लुत्फ़ उस के क़ुर्ब से वो भी मेरी शक्ल से बेज़ार है सारे दुश्मन हो गए ज़ेर-ए-नगीं ख़ुद से अब वो बर-सर-ए-पैकार है हर क़दम पर लड़खड़ाता हूँ 'सलीम' रास्ता शायद बहुत हमवार है