मिरी ख़ाक में विला का न कोई शरार होता न ही दिल से आग उठती न ये बे-क़रार होता मिरे सर पे हाथ रखना जो तिरा शिआ'र होता मैं न दर-ब-दर भटकता कहीं आर-पार होता मैं रहीन-ए-क़ल्ब-ए-मुज़्तर तू चराग़-ए-शादमानी तिरी महफ़िल-ए-तरब में कहाँ दिल-फ़िगार होता तिरी बे-ख़ुदी ने ऐ दिल किसी काम का न छोड़ा तिरी बात टाल देता तो न ख़ुद पे बार होता तिरे हुस्न की कहानी मिरी चश्म-ए-तर से निकली मैं न अश्क-बार होता तो न आश्कार होता अगर इस पे बैठ जाता कोई मुर्ग़-ए-ना-उमीदी मिरा नख़्ल-ए-आरज़ू फिर कहाँ साया-दार होता