मिरी नज़र से जो नज़रें बचाए बैठे हैं ख़बर भी है उन्हें क्या गुल खिलाए बैठे हैं हज़ार बार जले जिस से बाल-ओ-पर अपने उसी चराग़ से हम लौ लगाए बैठे हैं जो शाख़ शोख़ी-ए-बरक़-ए-तपाँ से है मानूस उसी पे आज नशेमन बनाए बैठे हैं फिर उस के वादा-ए-फ़र्दा का हो यक़ीं कैसे हज़ार बार जिसे आज़माए बैठे हैं शब-ए-फ़िराक़ की हम तीरगी से घबरा कर चराग़-ए-ज़ख़्म-ए-ग़म-ए-दिल जलाए बैठे हैं उसे हिजाब कहूँ या कहूँ पशेमानी मिरे मज़ार पे वो सर झुकाए बैठे हैं हम एक क़तरा-ए-क़ल्ब-ए-हज़ीं में ऐ 'इक़बाल' ग़म-ए-हयात के तूफ़ाँ छुपाए बैठे हैं