मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए तिरा वजूद है लाज़िम मिरी ग़ज़ल के लिए कहाँ से ढूँढ के लाऊँ चराग़ सा वो बदन तरस गई हैं निगाहें कँवल कँवल के लिए किसी किसी के नसीबों में इश्क़ लिक्खा है हर इक दिमाग़ भला कब है इस ख़लल के लिए हुई न जुरअत-ए-गुफ़्तार तो सबब ये था मिले न लफ़्ज़ तिरे हुस्न-ए-बे-बदल के लिए सदा जिए ये मिरा शहर-ए-बे-मिसाल जहाँ हज़ार झोंपड़े गिरते हैं इक महल के लिए 'क़तील' ज़ख़्म सहूँ और मुस्कुराता रहूँ बने हैं दाएरे क्या क्या मिरे अमल के लिए