मिरी निगाह का पैग़ाम बे-सदा जो हुआ वो मेरी बात सुने क्यूँ मैं बे-नवा जो हुआ सवाद-ए-शहर में मिलते हैं लोग संग-ब-दस्त सवाद-ए-शहर से सहरा को रास्ता जो हुआ मिला न तू तो ग़म-ए-ज़िंदगी के दीवाने इधर ही लौट पड़े मैं तेरा पता जो हुआ तमाम रात मैं सुनता रहा तिरी आवाज़ तिरा ख़याल ही मुझ को तिरी सदा जो हुआ हवा-ए-गुल भी परेशाँ क़बा-ए-गुल भी चाक जुनूँ का फ़स्ल-ए-बहाराँ से राब्ता जो हुआ