न जब कोई शरीक-ए-ज़ात होगा मिरा हम-ज़ाद मेरे साथ होगा घरों के बंद दरवाज़ों में रौशन वही इक ज़ख़्म-ए-एहसासात होगा न यूँ दहलीज़ तक आओ कि बाहर गली में फ़ितना-ए-ज़र्रात होगा कुरेदे जाओ यूँ ही राख दिल की कहीं तो शो'ला-ए-जज़्बात होगा दरीचे यूँ तो खुल सकते नहीं थे हवाओं में किसी का हात होगा किताबों में मिलेंगे शेर मेरे मिरा ग़म रौनक़-ए-सफ़्हात होगा यही दिन में ढलेगी रात 'अख़्तर' यही दिन का उजाला रात होगा