मिरी निगाह में लम्हों का ख़्वाब उतरा था ज़मीं की सतह पे या माहताब उतरा था वो ख़ास लम्हा जिसे उम्र-ए-जावेदाँ कहिए वो बन के वस्ल का जाम-ए-शराब उतरा था ये कैसी चूक हुई बे-ख़ुदी में हम से कि बस तमाम उम्र मुसलसल अज़ाब उतरा था मुक़ाबला किया जिस पेड़ ने हवाओं का उसी पे बर्क़-ए-तपाँ का इताब उतरा था नदी जो प्यास बुझाती थी सब की सदियों से ख़ुद उस की प्यास बुझाने सराब उतरा था सहीफ़ा-ए-ग़म-ए-हस्ती का जब हुआ था नुज़ूल तो मुझ पे सोज़-ए-मोहब्बत का बाब उतरा था 'करामत' उस को तो जाना था आसमाँ से परे वो क़ाफ़िला जो सर-ए-आफ़्ताब उतरा था