मिसाल-ए-मुश्क ज़बाँ से मिरी फ़साना गया मैं इक तरन्नुम-ए-ख़ुश-लब जिसे सुना न गया गुलों के इश्क़ में ख़ारों से दोस्ती कर ली बस एक मुर्ग़-ए-चमन था जो आशिक़ाना गया हुई थी रहनुमाई मगर ये जुर्म का शौक़ उसी के कूचा-ए-क़ातिल में मुजरिमाना गया कभी तसव्वुर-ए-जानाँ कभी तसल्ली-ए-दिल तुम्हारी याद से ख़ाली कभी रहा न गया मिरा ये जुर्म भी लिख दे मिरे नविश्ते में कि मैं तकल्लुफ़-ए-उल्फ़त में मुख़्लिसाना गया किताब-ए-ज़ीस्त की ताबीर मर्ग-ए-दिल ही तो है जिसे सुना तो गया है अभी पढ़ा न गया सियाह रात की तन्हाइयाँ ख़ुदा की पनाह 'क़मर'-नज़ाद था दिलबर तो दिल-बराना गया