मिस्ल-ए-बहिश्त-ए-ख़ुश-नुमा कौन-ओ-मकान में इंसान मुब्तला है अजीब इम्तिहान में बुझती नहीं है कोशिश-ए-दरिया के बावजूद ये कैसी तिश्नगी है मिरे जिस्म ओ जान में वो धूप में खड़ा है बड़े इत्मिनान से लौ दे रहा है मेरा बदन साएबान में क्यूँ नाम इंतिसाब में लिख्खा गया मिरा किरदार जब नहीं था मिरा दास्तान में इस बार पस्तियाँ भी मयस्सर न आएँगी शल हो गए जो बाल-ओ-पर ऊँची उड़ान में वाबस्ता तुझ से अज़मत-ए-शेअर-ओ-सुख़न हुई इस बात को भी रखना 'ख़याल' अपने ध्यान में