मिट्टी के अलावा हैं कहाँ हम से कहीं और अफ़्लाक-नशीं और हैं हम ख़ाक-नशीं और ये किस की सराए है शब-ओ-रोज़ जहाँ से इक जाए मुसाफ़िर तो इक आ जाए मकीं और तुझ हुस्न-ए-मुकम्मल में क़यामत की कशिश है यूसुफ़ तो हज़ारों हैं मगर तुझ सा नहीं और मैं जान की बाज़ी भी लगा दूँ ऐ ज़माने गर ढूँड के ला दे तो मोहम्मद सा अमीं और 'राजस' की तबीअत पे अजब तेरा असर है रहता हूँ कहीं और मैं होता हूँ कहीं और