अजीब ख़्वाब था हम बाग़ में खड़े हुए थे हमारे सामने फूलों के सर पड़े हुए थे बरहना तितलियाँ रक़्साँ थीं उर्यां शाख़ों पर ज़मीं में सारे शजर शर्म से गड़े हुए थे तमाम पात थे नीले बुज़ुर्ग बरगद के उसी को डसने से साँपों के फन बड़े हुए थे ज़ईफ़ पेड़ थे बूढ़ी हवा से शर्मिंदा जवाँ परिंदे किसी बात पर अड़े हुए थे न कोई नग़्मा-ए-बुलबुल न कोई नग़्मा-ए-गुल ख़ुदा-ए-सुब्ह से सब ख़ुश-गुलू लड़े हुए थे वहीं पे सामने 'वासिफ़' था एक क़ब्रिस्ताँ जहाँ यहाँ वहाँ सब नामवर सड़े हुए थे फिर एक क़ब्र हुई शक़ तो उस में थे दो दिल और उन दिलों में मोहब्बत के नग जड़े हुए थे