मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है वफ़ाएँ गर न हों बुनियाद में घर टूट जाता है शनावर को कोई दलदल नहीं दरिया दिया जाए जहाँ कम-ज़र्फ़ बैठे हों सुखनवर टूट जाता है अना ख़ूद्दार की रखती है उस का सर बुलंदी पर किसी पोरस के आगे हर सिकंदर टूट जाता है हम अपने दोस्तो के तंज़ सुन कर मुस्कुराते हैं मगर उस वक़्त कुछ अंदर ही अंदर टूट जाता है मिरे दुश्मन के जो हालात हैं उन से ये ज़ाहिर है कि अब शीशे से टकराने पे पत्थर टूट जाता है संजो रक्खी हैं दिल में क़ीमती यादें मगर फिर भी बस इक नाज़ुक सी ठोकर से ये लॉकर टूट जाता है किनारे पर नहीं ऐ दोस्त मैं ख़ुद ही किनारा हूँ मुझे छूने की कोशिश में समुंदर टूट जाता है