मो'जिज़ा क्या कोई अब दस्त-ए-क़लंदर में नहीं या यही है कि शिफ़ा मेरे मुक़द्दर में नहीं या कि वाक़िफ़ नहीं मैं लज़्ज़त-ए-आतिश से अभी या शरर ही कोई शायद किसी पत्थर में नहीं जिस में रह जाएँ सिमट कर तिरे दिल के अफ़्लाक वही परवाज़ अभी तक मिरे शहपर में नहीं झूट हर रात दिखाएँ वो तो क्यों सच मानूँ रौशनी मुझ में निहाँ है मह-ओ-अख़्तर में नहीं किसी कोने में पड़ा होगा वहीं पर 'आज़ाद' तुम ने ढूँडा है मगर कूचा-ए-दिलबर में नहीं