हम ने यूँ परचम-ए-मेआ'र उठा रक्खा है काग़ज़ी फूलों से घर अपना सजा रक्खा है सब पे छाया हुआ है रो'ब सितमगारी का दिल में लोगों ने कहाँ ख़ौफ़-ए-ख़ुदा रक्खा है अपना हक़ माँगना क्या जुर्म कोई है आख़िर तुम ने इस बात पे क्यों हश्र उठा रक्खा है वो जो ग़ाफ़िल है यहाँ जज़्बा-ए-हमदर्दी से नाम क्यों उस का भला अहल-ए-वफ़ा रक्खा है मैं तिरा ज़ुल्म नहीं भूला मगर तेरे लिए आज भी ज़ह्न का दरवाज़ा खुला रक्खा है जानता है वो मिरी इज़्ज़त-ओ-तौक़ीर है क्या जिस ने नेज़े पे मिरे सर को उठा रक्खा है तुम को मालूम है क्या अपनी हक़ीक़त 'असरार' ख़ुद को आईने से क्यों तुम ने बचा रक्खा है