मोहब्बत हासिल-ए-दुनिया-ओ-दीं है मोहब्बत रूह-ए-अर्बाब-ए-यक़ीं है नज़र में झूम उठती हैं बहारें किसी की याद भी कितनी हसीं है तसद्दुक़ हो रहे हैं माह-ओ-अंजुम निगाहों में वही ज़ोहरा-जबीं है कहाँ मुमकिन है उस को भूल जाना कि हर इक नक़्श उस का दिल-नशीं है जहाँ चाहूँ वहीं महफ़िल सजा लूँ मिरी हर इक नज़र हुस्न-आफ़रीं है वही वो हैं जिधर भी देखता हूँ बस अब उन के सिवा कोई नहीं है ज़माना हो गया उस इक नज़र को ख़लिश सी आज तक दिल के क़रीं है हुआ हूँ मुद्दतों से ख़ुद-फ़रामोश मगर ये दिल तुझे भूला नहीं है सहारा मिल गया जीने का 'मुज़्तर' मुझे उन की मोहब्बत का यक़ीं है