मोहब्बत इब्तिदा में है जफ़ाएँ ना-मुनासिब हैं तुम्हारे रूठने की ये अदाएँ ना-मुनासिब हैं ये शायद उम्र ऐसी थी मोहब्बत हो गई मुझ को मगर इस उम्र में इतनी सज़ाएँ ना-मुनासिब हैं तुम्हारे शहर से जाना मुक़द्दर था सो झेला है मगर इस में रक़ीबों की दुआएँ ना-मुनासिब हैं अभी से हिज्र की तल्ख़ी में मर जाऊँगा जान-ए-जाँ अभी मौसम वफ़ा का है जफ़ाएँ ना-मुनासिब हैं इन्ही तारीकियों में ज़िंदा रहने का हुनर सीखो दिए को मत जलाओ तुम हवाएँ ना-मुनासिब हैं ये शेर-ओ-शायरी 'दाएम' ये इश्क़-ओ-आशिक़ी 'दाएम' मिरी मानो तुम्हारी ये अदाएँ ना-मुनासिब हैं