मोहब्बत कश्मकश में रह गई सिर्र-ए-निहाँ बन कर मिरे दिल का यक़ीं हो कर तिरे दिल का गुमाँ बन कर करे शुक्र-ए-मोहब्बत मेरा हर रूयाँ ज़बाँ बन कर अगर तुम बीच में आ जाओ शर्त-ए-इम्तिहाँ बन कर ये किस की राह पर सर दे रहे हैं मोहसिन-ए-उल्फ़त अजल ख़िदमत को आई है हयात-ए-जावेदाँ बन कर झटकता जाएगा उन को ज़माना अपने दामन से जो कुछ भी रह गए पीछे ग़ुबार-ए-कारवाँ बन कर ज़माने की हवा का रुख़ बदल जाना मुक़द्दर है यही तिनके क़फ़स होंगे बिसात-ए-आशियाँ बन कर न हो जब ठोकरें खाने पे भी एहसास-ए-बेदारी न टूटें दिल पे क्यों नाकामियाँ बर्क़-ए-तपाँ बन कर नहीं जब नक़्श-ए-अव्वल की तरह रंग-ए-बक़ा तुझ में ज़रूरत क्या है रहने की निशाना ले निशाँ बन कर फ़ज़ा पुर-कैफ़ बन कर छा गई ग़ुंचों की रानाई चमन में कौन आता है बहार बे-ख़िज़ाँ बन कर ज़मीं की तरह जब हासिल है क़ुदरत बुर्दबारी की रहूँ ऐ 'जुर्म' क्यों गर्दिश में नाहक़ आसमाँ बन कर